डॉली गढ़िया-पहले हमारे देश में जब लड़कियों की शादी होती थी तो उनकी उम्र बारह से तेरह साल के आसपास
होती थी. जिसके कारण उनमें शिक्षा और जागरूकता का अभाव था. लेकिन समय के साथ-साथ लोगों
में सामान्य शिक्षा के कारण रूढ़िवादी सोच और परंपरा में कई बदलाव होने लगे. इसके लिए समाज को जागरूक किया गया, बाल विवाह के खिलाफ सख्त कानून भी बनाए गए, जिसका नतीजा है कि देश के लोगों की मानसिकता में सकारात्मक बदलाव आया और अब पहले की अपेक्षा बाल विवाह बहुत कम हो गए हैं. लेकिन दुर्भाग्य से पारंपरिक रीति-रिवाजों के कारण यह अभिशाप अभी भी पूरी तरह से खत्म नहीं हो सका है. विशेषकर उत्तराखंड के दूर दराज़ पहाड़ी गांवों में बाल विवाह आज भी
होते हैं. मैं 10वीं में पढ़ती हूं. मेरा गांव बागेश्वर जिले से 20 किमी की दूरी पर और कपकोट ब्लॉक से 5 किमी की दूरी पर स्थित है.

हमारे गांव में आज भी कम उम्र में ही लड़कियों की शादी कर दी जाती है. यह प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है. जिसका सबसे बुरा प्रभाव लड़कियों पर पड़ता है. सबसे ज्यादा अन्याय लड़कियों के साथ होता है. जिसके कारण लड़कियों को न चाहते हुए भी कई बार मौत के मुंह में जाना पड़ता है. गांव की एक बुजुर्ग महिला खखोटी देवी कहती हैं कि “12 साल की उम्र में मेरी सहमति के बिना मेरी शादी कर दी गई थी, तब मुझे शादी का मतलब भी नहीं पता था, किसी ने यह जानने की जहमत भी नहीं थी कि मुझे क्या चाहिए? मेरा क्या दिल करता है? मुझे पढ़ने का शौक था, लेकिन यह वह जमाना था जब लड़कियों को परिवार पर बोझ समझा जाता था. जब लड़की थोड़ी बड़ी हुई तो उसके विवाह की तैयारी होने लगती थी, तब शिक्षा का भी कोई महत्व नहीं था. जब मेरी शादी हुई और मैं अपने नए घर में आई, तो मुझे अच्छे-बुरे, सही-गलत का कुछ पता नहीं था. छोटी उम्र में ही
घर की सारी जिम्मेदारी मेरे सिर पर आ गई थी, जिससे मेरा बचपन मुझसे छिन गया था. जिस उम्र में मेरे हाथों में खिलौने होने चाहिए थे, उस उम्र में जिम्मेदारी की जंजीरों में जकड़ दिया गया था. आजाद होते हुए भी मैं आजाद नहीं थी. मैं अपने घर (ससुराल) में भी अपनी मर्जी से कुछ नहीं कर सकती थी.”

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