मुर्तज़ा सोलंकी : सम्पादक (दैनिक स्पेस प्रहरी)

हमने पहले भी लिखा है कि विपक्ष का गठबंधन टूटने के लिए बनता है। चूंकि विपक्ष की नियति टूटने की है, लिहाजा बार-बार गठबंधन करना पड़ता है। यह नियति हम जनता पार्टी के दौर से देखते आ रहे हैं। इस बार ‘इंडिया’ का प्रयोग कुछ भिन्न और व्यापक लग रहा था, लेकिन दो अलगाव ऐसे घोषित किए गए हैं कि विपक्षी गठबंधन की संभावनाएं प्रभावहीन लगती हैं। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस और पंजाब में भगवंत मान ने आम आदमी पार्टी (आप) की ओर से घोषणाएं की हैं कि वे अकेले ही सभी सीटों पर लोकसभा चुनाव लड़ेंगे। कांग्रेस के साथ कोई गठबंधन नहीं होगा। अलबत्ता उन्होंने ‘इंडिया’ का हिस्सा बने रहने की भी घोषणाएं की हैं। अपने प्रभाव क्षेत्रों के बाहर गठबंधन के मायने क्या हैं? यदि ये घोषणाएं ‘अंतिम’ हैं, तो भाजपा की चुनावी संभावनाएं बढ़ सकती हैं। ममता और भगवंत मान दोनों ही अपने-अपने राज्य के मुख्यमंत्री हैं।

आश्चर्य यह है कि बंगाल में कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, के प्रति अभद्र भाषा का इस्तेमाल करते रहे हैं। वह छुटभैया नेता नहीं हैं, बल्कि लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता हैं। वह ममता बनर्जी को ‘अवसरवादी नेता’ करार देते रहे हैं और बार-बार बयान देते हैं कि ममता कांग्रेस की कृपा और मदद से ही पहली बार सत्ता में आई थीं। कांग्रेस अकेले ही चुनाव लडऩे में सक्षम है। ममता ‘इंडिया’ की भीतरी राजनीति से क्षुब्ध थीं। उनके प्रत्येक प्रस्ताव को खारिज किया गया।

गठबंधन में वाममोर्चे के नेताओं का प्रभाव ज्यादा है और वे हरेक बैठक को ‘तारपीडो’ करते रहे हैं। ममता का आरोप है कि राज्य में कांग्रेस की रैलियां की जा रही हैं। उनके खिलाफ ज़हर उगला जा रहा है। राहुल गांधी की ‘न्याय यात्रा’ की न तो उन्हें जानकारी दी गई और न ही कोई आमंत्रण मिला। बंगाल में ‘न्याय यात्रा’ और राहुल गांधी के जो पोस्टर लगाए गए थे, ममता की घोषणा के बाद उन्हें फाडऩा शुरू कर दिया गया। दोनों दलों के बीच ज़हरीला अलगाव इस हद तक पहुंच चुका है।

अंतत: ममता ने फैसला किया कि उनकी तृणमूल कांग्रेस पार्टी, कांग्रेस के साथ, कोई गठबंधन नहीं करेगी और सभी 42 लोकसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी। हालांकिकांग्रेसनेताजयरामरमेशनेबयान देकर पार्टी का नरम रुख जताया कि ममता के बिना ‘इंडिया’ गठबंधन की कल्पना तक नहीं की जासकती। बहरहाल तृणमूल कांग्रेस बंगाल की सबसे मजबूत राजनीतिक ताकत है। 2019 के आम चुनाव में 43 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल कर उसके 22 सांसद जीते थे, जबकि कांग्रेस के 5.5 फीसदी वोट के साथ मात्र 2 सांसद ही संसद तक पहुंच पाए थे। वाममोर्चे को करीब 7.5 फीसदी वोट मिले थे, लेकिन सांसद के तौर पर ‘शून्य’ ही नसीब हुआ। भाजपा को 40 फीसदी से ज्यादा वोट मिले थे और उसके पहली बार 18 सांसद चुने गए। दरअसल विपक्षी गठबंधन अपने अस्तित्व के करीब 7 माह के दौरान चाय-नाश्ते पर बैठकें तो कर सका, लेकिन सीटों के बंटवारे, सचिवालय, संयोजक, साझा न्यूनतम कार्यक्रम, साझा नारा, ध्वज आदि पर आज तक सहमत नहीं हो सका है। अब तो अलगाव की नौबत भी आ गई है। बंगाल के अलावा, पंजाब की घोषणा भी अलगाववादी है। ऐसी स्थिति में मोदी का मुकाबला कैसे होगा?

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