यदि भारतीय रिजर्व बैंक केंद्र सरकार को 1.76 लाख करोड़ रुपए की मदद को तैयार है, तो कोई आसमान नहीं फटेगा। रिजर्व बैंक भारत सरकार के अधीन है, हालांकि उसकी अपनी स्वायत्तता भी है। उसकी भूमिका एक बैंकर, एजेंट और सलाहकार की है। उसके अधिकारी केंद्र सरकार ही नियुक्त करती है। रिजर्व बैंक अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष में भारत सरकार का प्रतिनिधित्व करता है। यदि जरूरत पड़ने पर रिजर्व बैंक भारत सरकार की मदद करता है और अर्थव्यवस्था के हिचकोलों को स्थिर करने में योगदान देता है, तो इसमें गलत क्या है? संवैधानिक और आपात संकट की स्थिति क्या है? एकदम आर्थिक मंदी और दिवालियापन के निष्कर्षों पर पहुंचने की जरूरत क्या है? रिजर्व बैंक से कर्ज लेना कहां की ‘चोरी’ और ‘लूट’ है? राहुल गांधी ‘चोर-चोर’ का शोर मचाने के आदी हो गए हैं। आम चुनाव में देश की जनता इसका माकूल जवाब दे चुकी है। बेवजह एक मुद्दा सुलगाया जा रहा है। भारत सरकार ने तो रातोरात सोना गिरवी रखकर दुनिया में देश को ‘डिफाल्टर’ होने से बचाया था। वह सरकार किसके समर्थन पर जिंदा थी? रिजर्व बैंक का पैसा किसका है? बेशक देश के करदाताओं का है। भारत सरकार भी देश की जनता ने ही चुनी है। रिजर्व बैंक का मौजूदा कोष 36 लाख करोड़ रुपए से अधिक का है। केंद्रीय बैंक के पास 612.6 टन सोना और 431 अरब डॉलर की विदेशी मुद्रा ‘रिजर्व’ है। बैंक में ही इस जमा पूंजी के रहने के फायदे क्या हैं? यदि किसी भी आर्थिक जरूरत के मद्देनजर भारत सरकार ने केंद्रीय बैंक से 1,76,051 करोड़ रुपए मांगे हैं, तो बैंक नहीं देगा, तो कौन देगा? मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में भी वित्त मंत्री ने रिजर्व बैंक के ‘संचित धन’ में से कुछ हिस्से की मांग की थी, लेकिन तत्कालीन गवर्नर उर्जित पटेल ने इनकार कर दिया था, नतीजतन एक विवाद सामने खड़ा हो गया था कि सरकार केंद्रीय बैंक का संचित धन मांग सकती है अथवा नहीं! पटेल को इस्तीफा देना पड़ा था। उसके बाद बैंक के पूर्व गवर्नर बिमल जालान की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया गया था। उस कमेटी ने सरकार को धन देने की अनुशंसा की थी, तो उसके आधार पर बैंक इतनी राशि देने को तैयार हुआ। गौरतलब यह है कि रिजर्व बैंक के 2018-19 के दौरान 1.23 लाख करोड़ रुपए तो ‘सरप्लस’ रहे हैं। सिर्फ 53 हजार करोड़ रुपए ही संचित पूंजी में से देने पड़ेंगे। विपक्ष में खासकर कांग्रेस ने चिल्ला-चोट करना शुरू कर दिया है। कांग्रेस नेताओं ने भारतीय अर्थव्यवस्था की तुलना अर्जेन्टीना, वेनेजुएला, जिम्बाब्वे से की है,जहां केंद्रीय बैंक की आर्थिक मदद के बावजूद परिस्थितियां ठीक नहीं हुई थीं और वे देश गहरे आर्थिक संकट में घिरकर कंगाल हो गए थे। क्या विश्व की छठी अर्थव्यवस्था की तुलना इन अस्थिर और अराजक देशों से की जा सकती है? बेशक देश में कुछ आर्थिक संकट का दौर है, बाजार में नकदी कम है, बैंकों के पास कर्ज देने को पर्याप्त धन नहीं है, पारले सरीखी कंपनियों में छंटनी हो रही है, ऑटो सेक्टर का बुरा हाल है, लेकिन कुल मिलाकर मंदी जैसी स्थिति नहीं है। बीते दिनों वित्त मंत्री निर्मला सीतारणन ने बैंकों को 70,000 करोड़ रुपए देने की घोषणा की थी। यदि केंद्रीय बैंक के धन से शेष बैंक खड़े होते हैं और कर्ज देने की स्थिति सुधरती है, तो उससे बाजार ही दौड़ेगा, कारोबार बढ़ेगा और रोजगार के अवसर पैदा होंगे। लिहाजा भारत सरकार को यह जरूर स्पष्ट करना चाहिए कि रिजर्व बैंक से जो 1.76 लाख करोड़ रुपए लिए जा रहे हैं, उनका उपयोग किन क्षेत्रों और कार्यों के लिए किया जाएगा। यदि उस धन को भी कुछ उद्योगपतियों में ‘आर्थिक पैकेज’ के तौर पर बांटा जाता है, तो हम अपने पाठकों को याद दिला दें कि बीते दस सालों में 18 लाख करोड़ रुपए के पैकेज उद्योगपतियों में बांटे गए हैं। हालांकि वित्त मंत्री ने साफ कहा है कि वह अभी नहीं बता सकतीं कि रिजर्व बैंक का पैसा कहां खर्च किया जाएगा। यदि संभव हो सके, तो मौजूदा आर्थिक हालात पर सरकार ‘श्वेत पत्र’ भी ला सकती है, क्योंकि यह सरकार पहले की सरकारों की तरह कुछ भी छिपाती नहीं है। पहले की सरकारें भी रिजर्व बैंक पर पैसा देने का दबाव डालती थीं। कमोबेश इस बार यह काम आपसी सहमति से हो रहा है।