सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को एक फैसले में तदर्थ (एडहॉक) कर्मचारियों को बड़ी राहत दी है। कोर्ट ने कहा कि ऐसे कर्मचारी पेंशन और सेवानिवृत्ति के अन्य लाभों के हकदार हैं और उन्हें अनुबंध पर रखे गए कर्मचारियों के समकक्ष बिल्कुल नहीं रखा जा सकता।

यह कहते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाईकोर्ट का फैसला रद्द कर दिया। इस फैसले में फास्ट ट्रैक कोर्ट के जजों को अनुबंधित कर्मचारी मानकर सेवानिवृत्ति और अन्य लाभ देने से मना कर दिया गया था। जस्टिस एके सीकरी और अशोक भूषण की पीठ ने राज्य सरकार को आदेश दिया कि इन जजों को दो माह के अंदर ये लाभ दे दिए जाएं।

अदालत ने कहा कि लाभ देने में देरी होने पर सात फीसदी की दर से साधारण ब्याज भी दिया जाएगा। इन लोगों ने पद से हटाने के इस फैसले को रिट याचिका के जरिये चुनौती दी। लेकिन यह याचिका खारिज हो गई। इसके बाद उन्होंने सेवानिवृत्ति लाभों, ग्रेच्युटी, लीव इनकैशमेंट और पेंशन के लिए रिट याचिकाएं दायर की थीं, लेकिन र्हाइकोर्ट ने उसे भी खारिज कर दिया।

एडहॉक और अनुबंध नियुक्ति में फर्क
अनुबंधीय नियुक्तियां सामान्यतया किसी पद के एवज में नहीं की जातीं। यह सामान्यतया वेतनमान के आधार पर भी नहीं होता। पीठ ने कहा कि सिर्फ ये तथ्य कि विज्ञापन के अनुसार नियुक्ति शुरू में पांच सालों के लिए की गई थी, इसे अनुबंध के आधार पर की गई नियुक्ति नहीं माना जा सकता। जब भी सरकारी सेवक किसी पद पर सीमित अवधि के लिए आता है तो वह आवधिक पद (टेन्योर पोस्ट) होता है।

जजों की नियुक्ति का मामला
दरअसल, तमिलनाडु में फास्टट्रैक कोर्ट में के. अंबागझन, जी सावित्री, ए राधा, ए हसीना और पीजी राजगोपाल को पांच साल के लिए जज नियुक्त किया गया था। लेकिन यह काल बढ़ता रहा और अंतत: उन्हें 2012 में इस नियुक्ति से छुट्टी दे दी गई।

सुप्रीम कोर्ट, फैसले में की गई टिप्पणी
महज विज्ञापन और नियुक्ति पत्र में यह लिख देना कि नियुक्ति पांच वर्ष के लिए है, से नियुक्ति की प्रकृति नहीं बदलती। जब विज्ञापन में यह लिखा था कि नियुक्ति एडहॉक के आधार पर है तो हम इन नियुक्तियों को अनुबंध की नियुक्तियां नहीं मान सकते।

फैसले का दूरगामी असर
इस फैसले से एडहॉक पर सालों से काम कर रहे कर्मचारियों और अधिकारियों को लाभ होगा, अब उन्हें पेंशन और सेवानिवृत्ति के लाभों से वंचित नहीं किया जा सकेगा। ऐसे कर्मचारी ताजा फैसले के आधार पर लाभ ले सकेंगे।

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