नई दिल्ली, 01 अगस्त । स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री डॉ. हर्षवर्धन द्वारा बृहस्पतिवार को राज्यसभा में पेश राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान आयोग विधेयक 2019 के प्रावधानों से राज्यों के अधिकार कम होने और इन प्रावधानों के, केन्द्र की ओर उन्मुख होने का आरोप लगाते हुये विपक्षी दलों ने इस विधेयक को स्थायी समिति के समक्ष विचारार्थ भेजने की मांग की। विधेयक पर चर्चा में हिस्सा लेते हुये कांग्रेस के जयराम रमेश ने कहा कि सरकार ने स्थायी समिति के 56 में से जिन सात सुझावों को आंशिक रूप से स्वीकार किया है, उससे भारतीय चिकित्सा परिषद पर नकारात्मक असर पड़ेगा। रमेश ने दलील दी कि स्वास्थ्य राज्य सूची का विषय है जबकि चिकित्सा शिक्षा समवर्ती सूची का विषय है। प्रस्तावित विधेयक में एनएमसी के निदेशक मंडल में राज्यों का अपर्याप्त प्रतिनिधित्व का मुद्दा उठाते हुये उन्होंने कहा कि इसके गठन में खामी है।
उन्होंने कहा कि बोर्ड में राज्यों के असमान प्रतिनिधित्व के प्रावधानों की वजह से उड़ीसा जैसे छोटे राज्यों के प्रतिनिधियों को इसमें शामिल होने का अवसर 12 साल बाद मिल सकेगा। उन्होंने कहा कि 25 सदस्यीय बोर्ड में 14 केन्द्र के, छह सदस्य राज्यों के और पांच नामित सदस्यों का प्रावधान है। इसे बदल कर उन्होंने राज्यों के प्रतिनिधियों की संख्या 15 करने का सुझाव दिया। रमेश ने सरकारी और निजी मेडिकल कालेजों में सीटों की संख्या और शुल्क संबंधी प्रावधानों को भी दोषपूर्ण बताते हुये इन्हें तार्किक बनाने की मांग की। उन्होंने कहा कि मौजूदा व्यवस्था में पूरे देश में स्नातक चिकित्सा पाठ्यक्रम (एमबीबीएस) की 76 हजार सीट हैं। इनमें 40 हजार सरकारी मेडिकल कालेज में और 36 हजार निजी मेडिकल कालेज में हैं। इस विधेयक में सरकारी और निजी मेडिकल कालेजों में 50 प्रतिशत सीटें निर्धारित करने की सीमा को बदल कर उन्होंने सरकारी कालेजों में सीटों की संख्या 75 प्रतिशत किये जाने का सुझाव दिया। उन्होंने कहा कि यह विधेयक चिकित्सा शिक्षा क्षेत्र में निजीकरण के दरवाजे खोलेगा। उन्होंने दलील दी कि वह किसी भी क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी के हिमायती हैं लेकिन चिकित्सा शिक्षा सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारी है इसलिये वह इस क्षेत्र के निजीकरण के सख्त खिलाफ हैं। रमेश ने प्रस्तावित विधेयक की धारा 32 में सामुदायिक स्वास्थ्य कर्मियों (कम्यूनिटी हेल्थ प्रोवाइडर) की तैनाती के प्रावधान को खतरनाक बताते हुये कहा कि यह प्रावधान स्थायी समिति द्वारा सुझाये गये विधेयक में नहीं था।
उन्होंने कहा कि इससे नर्स और कंपाउडरों को डाक्टरों की तरह प्राथमिक चिकित्सा परामर्श देने की अनुमति मिल जायेगी, जिससे चिकित्सा सेवा की गुणवत्ता बुरी तरह प्रभावित होगी। कांग्रेस सदस्य ने सरकार ने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाने की अपील करते हुये विधेयक को स्थायी समिति में भेजने की मांग की। सपा के रामगोपाल यादव ने भी सामुदायिक स्वास्थ्य कर्मियों के प्रावधान पर आपत्ति दर्ज कराते हुये कहा कि इससे देश में एक बार फिर झोलाछाप डॉक्टरों का प्रचलन शुरु हो जायेगा। विधेयक में इनके कामकाज के बारे में कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं किया गया है। उल्लेखनीय है कि यादव इस विधेयक के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करने वाली विभाग संबंधी स्थायी समिति के अध्यक्ष थे। सपा नेता ने कहा कि यह विधेयक केन्द्र को अधिक अधिकार संपन्न बनाने वाला है।
यादव ने कहा कि सरकार ने अगर समिति का परामर्श माना होता तो इसमें केन्द्र और राज्य के अधिकारों के बीच संतुलन कायम हो पाता। उन्होंने विधेयक में चिकित्सा शिक्षा प्रवेश परीक्षा (नीट) की कांउसलिंग प्रक्रिया को पारदर्शी बनाये जाने की जरूरत पर बल देते हुये कहा कि निजी मेडिकल कालेजों के प्रदर्शन के आधार पर इनकी ग्रेडिंग होनी चाहिये। चर्चा के दौरान भाजपा के सुरेश प्रभु ने चिकित्सा शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में सुधार को लेकर इस विधेयक को सरकार की सकारात्मक पहल बताया। प्रभु ने कहा कि बतौर चिकित्सक स्वास्थ्य मंत्री ने इस क्षेत्र की समस्याओं को पहचानते हुये इनके गंभीर एवं प्रभावकारी समाधान करने का प्रयास किया है। इन प्रयासों को इस विधेयक के माध्यम से लागू किया जायेगा। इससे देश में मरीजों की अत्यधिक संख्या और डॉक्टरों की अपर्याप्त संख्या के अनुपात को भी दुरुस्त करने में मदद मिलेगी।