संसद का वर्तमान सत्र उपलब्धियों की दृष्टि से अत्यंत सफल रहा है। इसमें कई ऐतिहासिक विधेयक पारित किए गए हैं। तीन तलाक कानून, आतंक पर कठोर प्रहार करने वाले कानून और अनुच्छेद 370 पर निर्णय। ये सभी निश्चित तौर पर अप्रत्याशित हैं। यह आम धारणा कि अनुच्छेद 370 पर बीजेपी द्वारा किया गया वादा सिर्फ एक नारा है जिसे पूरा नहीं किया जा सकता, एकदम गलत साबित हुई है। सरकार की नई कश्मीर नीति पर आम जनता की ओर से जो जबर्दस्त समर्थन मिल रहा है, उसे देखते हुए कई विपक्षी दलों ने जनता के सुर में सुर मिलाना ही उचित समझा है। यही नहीं, राज्यसभा में इस निर्णय का दो तिहाई बहुमत से पारित होना निश्चित तौर पर कल्पना से परे है।

विफल प्रयासों का इतिहास

विलय के प्रस्ताव (इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन) पर अक्टूबर, 1947 में हस्ताक्षर किए गए थे। पश्चिमी पाकिस्तान से लाखों शरणार्थी भारत आ गए थे। पंडित नेहरू की सरकार ने उन्हें जम्मू-कश्मीर में बसने की अनुमति नहीं दी थी। पिछले 72 वर्षों से कश्मीर पाकिस्तान का अपूर्ण अजेंडा रहा है। पंडित जी ने हालात का आकलन करने में भारी भूल की। वह जनमत संग्रह के पक्ष में थे और उन्होंने संयुक्त राष्ट्र को इस मुद्दे पर विचार-विमर्श करने की अनुमति दे दी। उन्होंने शेख मोहम्मद अब्दुल्ला पर भरोसा करके उन्हें राज्य की बागडोर सौंपने का निर्णय लिया। फिर इसके बाद वर्ष 1953 में उनका विश्वास शेख साहब से उठ गया और उन्हें जेल में बंद कर दिया गया। दरअसल, शेख ने इस राज्य को अपने व्यक्तिगत साम्राज्य में तब्दील कर दिया था। उस समय जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस नहीं थी। कांग्रेसी नेशनल कांफ्रेंस के सदस्य हुआ करते थे। कांग्रेस की एक सरकार नेशनल कांफ्रेंस के नाम से बना दी गई थी जिसके प्रमुख बख्शी गुलाम मोहम्मद थे जबकि नेशनल कांफ्रेंस के नेतृत्व ने ‘जनमत संग्रह मोर्चा’ के नाम से अलग समूह बना लिया था लेकिन नेशनल कांफ्रेंस का रूप धारण कर कांग्रेस आखिर चुनाव कैसे जीत पाती?

वर्ष 1957, 1962 और 1967 के चुनावों में निस्संदेह धांधली हुई थी। एक अधिकारी ने घाटी में किसी भी विपक्षी उम्मीदवार का नामांकन तक नहीं होने दिया था। इन तीनों चुनावों में ज्यादातर कांग्रेसी निर्विरोध ही निर्वाचित हो गए थे। घाटी की जनता का केंद्र सरकार में कोई विश्वास नहीं रह गया था। विशेष दर्जा देने और राज्य की बागडोर शेख साहब को सौंपने तथा बाद में कांग्रेस सरकारों के सत्तारूढ़ होने का प्रयोग एक ऐतिहासिक भूल साबित हुआ। पिछले सात दशकों के इतिहास से पता चलता है कि राज्य को मिले इस अलग दर्जे की यात्रा अलगाववाद की ओर रही है, न कि एकीकरण की ओर। पाकिस्तान ने इन परिस्थितियों का फायदा उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 1989-90 तक हालात काबू से बाहर हो गए और अलगाववाद के साथ-साथ आतंकवाद भी जोर पकड़ने लगा। कश्मीरी पंडितों को, जो कि कश्मीरियत का अनिवार्य अंग थे, घाटी से बाहर खदेड़ दिया गया।

जिस समय अलगाववाद और उग्रवाद जोर पकड़ रहे थे, विभिन्न राजनीतिक दलों की अगुआई वाली केंद्र सरकारों ने तीन प्रकार के प्रयास किए। उन्होंने अलगाववादियों से बातचीत की कोशिश की, जो व्यर्थ साबित हुई। उन्होंने इस समस्या को द्विपक्षीय मामले के रूप में पाकिस्तान के साथ बातचीत करके हल करने की कोशिश की। दरअसल सरकारें समस्या का समाधान तलाशने के नाम पर समस्या के जन्मदाता के साथ बातचीत कर रही थीं। बातचीत का प्रयोग विफल होने के बाद कई सरकारों ने व्यापक राष्ट्रीय हित में जम्मू-कश्मीर की तथाकथित मुख्यधारा वाली पार्टियों के साथ समायोजन करने का फैसला किया। दो राष्ट्रीय दलों ने एक अवस्था पर दो क्षेत्रीय पार्टियों- पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस पर भरोसा करने का प्रयोग किया। उन्हें सत्ता दिलाई ताकि क्षेत्रीय पार्टियों की मदद से वे जनता के साथ संवाद कर सकें। हर मौके पर यह प्रयोग विफल रहा। क्षेत्रीय पार्टियों ने नई दिल्ली में एक जबान बोली तो श्रीनगर में दूसरी जबान में बात की।

अलगाववादियों के तुष्टिकरण का सबसे खराब प्रयास 1954 में गुपचुप ढंग से संविधान में अनुच्छेद 35-ए को सरकाने का था। इसमें भारतीय नागरिकों की दो श्रेणियों के बीच भेदभाव किया गया और इसकी परिणति कश्मीर को देश के शेष भाग से दूर करने में हुई। यह संवैधानिक प्रावधान पत्थर की लकीर नहीं है। कानून की निर्धारित प्रक्रिया के माध्यम से इसे हटाया जाना था अथवा बदला जाना था। यहां तक कि अनुच्छेद 35-ए संसद अथवा राज्य विधानसभा द्वारा भी स्वीकृत नहीं था। यह अनुच्छेद 368 को चुनौती देता है, जिसके द्वारा संविधान के संशोधन की प्रक्रिया निर्धारित है। एक कार्यपालक अधिसूचना द्वारा इसे पिछले दरवाजे से लाया गया था। यह न केवल भेदभाव को अनुमति देता है बल्कि इसे न्याय से परे बताता है। जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा प्रदान करने की इन ऐतिहासिक भूलों की देश को राजनीतिक और वित्तीय, दोनों रूप से कीमत चुकानी पड़ी।

कांग्रेस का रवैया

आज जब इतिहास को नए सिरे से लिखा जा रहा है, तब इतिहास ने ही यह फैसला सुनाया है कि कश्मीर को लेकर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की दृष्टि सही थी और पंडित जी के सपनों का समाधान विफल साबित हुआ। वर्तमान निर्णय यह स्पष्ट करता है कि जिस तरह देश के अन्य भागों में कानून का शासन है, उसी तरह कश्मीर में भी कानून का शासन लागू होगा। वहां सुरक्षा के कदम कड़े किए गए हैं। आतंकवादियों का सफाया किया गया है। अलगाववादियों को दी गई सुरक्षा वापस ली गई है। इस पहल के व्यापक समर्थन ने कई विपक्षी दलों को भी इसका समर्थन करने के लिए बाध्य किया है। कांग्रेस के लोग भी मोटे तौर पर इस विधेयक का समर्थन करते हैं। उनकी निजी और सार्वजनिक टिप्पणियां इसी दिशा में हैं लेकिन एक दिग्भ्रमित दल के रूप में यह राष्ट्रीय पार्टी भारत की जनता से अपनी विरक्ति बढ़ा रही है।

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