यह कांग्रेसियों का विशेषाधिकार है कि वे किसे भी अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनें। यह विशेषाधिकार भी मुट्ठी भर, मनोनीत कांग्रेसियों का है, पार्टी के तमाम अखिल भारतीय स्तर के नेताओं का नहीं है। बेशक राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनना कांग्रेस का अंदरूनी मामला है, लेकिन वह एक राष्ट्रीय पार्टी है, उसकी जवाबदेही भी राष्ट्रीय है, उसने दशकों तक देश का शासन चलाया है, लिहाजा चिंता और सरोकार भी राष्ट्रीय होना स्वाभाविक है। कांग्रेस ने एक बार फिर सोनिया गांधी को पार्टी की लगाम थमाई है। बेशक अंतरिम अध्यक्ष…लेकिन उनकी हैसियत पूर्णकालिक अध्यक्ष से कमतर नहीं है। हमारा आकलन तो यह है कि अंततः कांग्रेस महाधिवेशन के जरिए सोनिया गांधी के नाम पर ही मुहर लगा दी जाएगी। वह सबसे लंबे 19 सालों तक कांग्रेस अध्यक्ष रही हैं। सवाल यह है कि कांग्रेस कार्यसमिति ने अब जो तय किया है, वह करीब अढाई महीने पहले क्यों नहीं किया जा सकता था? क्या इतनी पुरानी पार्टी ‘गांधी’ नाम के सहारे ही चलेगी? राहुल गांधी की मिन्नत-चिरौरी करते रहे। कुछ नेता तो कार्यसमिति की बैठक के दौरान गिड़गिड़ाते रहे। चाको ने कांग्रेसियों के इस्तीफों की धमकी-सी दी, लेकिन राहुल नहीं माने। उनके विकल्प के तौर पर प्रियंका गांधी का नाम उछाला गया। वह खुद तैयार नहीं थीं। अंततः पी.चिदंबरम ने सोनिया गांधी के नाम का प्रस्ताव रखा, तो वह भी इनकार करती रहीं, लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह, पूर्व रक्षा मंत्री एके एंटनी और कोषाध्यक्ष अहमद पटेल के आग्रहों को नहीं टाल सकीं। नतीजतन सोनिया गांधी आज कांग्रेस अध्यक्ष हैं। इस दौरान मीडिया में सुशील कुमार शिंदे, मल्लिकार्जुन खड़गे, मुकुल वासनिक और ज्योतिरादित्य सिंधिया के नाम चलवाए गए, जिनकी चर्चा तक कार्यसमिति की बैठकों में नहीं की गई। बेशक यह कांग्रेस की अनिश्चितता, अनिर्णय, असमंजस और वंश परजीवी होने की स्थिति ही है। उनकी मानसिकता इतनी सामंती हो चुकी है कि वे नेहरू-गांधी नाम के इतर सोच भी नहीं सकते। उनकी सोच है कि सिर्फ गांधी वंश का व्यक्ति ही कांग्रेस को एकजुट रख सकता है, पार्टी के बिखराव को रोक सकता है, कार्यकर्ताओं और नेताओं के स्तर पर छाई हताशा, निराशा को दूर कर सकता है। यह आजमाया हुआ फार्मूला भी है, लिहाजा 2019 में नेहरू परिवार की राजनीति के 100 साल पूरे हो रहे हैं, उनमें से करीब 50 साल कांग्रेस का नेतृत्व नेहरू-गांधी परिवार के हाथों में ही रहा है। चूंकि कांग्रेस फिलहाल गहरे संकट के दौर से गुजर रही है, पार्टी के पुराने और ओहदेदार नेता पार्टी छोड़ कर भाजपा में शामिल हो रहे हैं, क्या सोनिया गांधी के पास कोई ऐसा करिश्मा है कि इस विघटन को रोक सकें और पार्टी को मोदी-शाह की भाजपा का मुकाबला करने के सक्षम बना सकें? यही सोनिया गांधी की बुनियादी चुनौती है करीब 21 साल बाद पार्टी नेताओं के दबाव में सोनिया गांधी ने फिर पार्टी की कमान संभाली है। 1998 में जब वह कांग्रेस अध्यक्ष बनी थीं, तब भी पार्टी ढलान पर थी और टूट-बिखर रही थी, लेकिन लोकसभा में पार्टी के 141 सांसद थे। आज लोकसभा में 52 सांसद हैं और राज्यसभा में घटते हुए 42 रह गए हैं। भाजपा उस दौर की तुलना में बेहद ताकतवर हुई है। सबसे महत्तवपूर्ण बिंदु यह है कि सोनिया उम्र के उस पड़ाव पर हैं, जहां वह लगातार अस्वस्थ रहती हैं। बार-बार इलाज के लिए विदेश जाना पड़ता रहा है। ऐसे में कांग्रेस को सक्रिय नेतृत्व देना सरल नहीं है। फिलहाल की चुनौती तीन विधानसभा चुनाव हैं-हरियाणा, झारखंड और महाराष्ट्र। दिल्ली विधानसभा चुनाव भी 2020 के शुरू में ही होने हैं। इन राज्यों में न केवल संगठन दोफाड़ है, बल्कि नेताओं में भी जूतम पैजार जारी है। झारखंड के अध्यक्ष डा.अजय कुमार इन्हीं परिस्थितियों में अपना इस्तीफा आलाकमान को भेज चुके हैं। सोनिया गांधी ऐसे नेताओं के सिर जोड़ कर पार्टी की जीत की संभावनाओं को पुख्ता कैसे कर सकती हैं? आज कांग्रेस के सामने अनुच्छेद 370, समान नागरिक संहिता, हलाला का मुद्दा, पाकपरस्ती का ठप्पा और राम मंदिर सरीखे कई संवेदनशील विषय हैं। उन पर कांग्रेस को अपनी सोच देश के सामने स्पष्ट करनी है। आज की स्थिति में यूपीए के विभिन घटक दल भी बेहद कमजोर हैं, वामदल भी मृतप्रायः हो गए हैं, लिहाजा 2004 और 2009 में जिस तरह सत्ता हासिल हुई थी, उसकी कल्पना भी आज नहीं की जा सकती, क्योंकि सामने मोदी-शाह सरीखे रणनीतिकार नेता मौजूद हैं। फिलहाल देश पर उनका जादू बरकरार है। यदि अंतरिम अध्यक्ष के तौर पर कुछ और वक्त बर्बाद करना है, तो वह कांग्रेस और सोनिया गांधी का विशेषाधिकार है। हम भी नए कांग्रेस अध्यक्ष का करिश्मा देखना चाहते हैं।