नई दिल्ली, 31 जुलाई। लोकसभा में सम्पूर्ण विपक्ष ने राज्यों के बीच नदी जल बंटवारे को लेकर गठित सभी न्यायाधिकरणों को मिलाकर एक स्थायी न्यायाधिकरण गठित करने संबंधी अंतर-राज्यीय नदी जल विवाद संशोधन विधेयक का विरोध किया तथा इसे राज्यों के अधिकारों का हनन करार दिया।
विपक्ष ने सदन में अंतर-राज्यीय नदी जल विवाद संशोधन विधेयक 2019 पर चर्चा के दौरान कहा कि सरकार की ओर से लाया गया संशोधन विधेयक संविधान के अनुच्छेद 262 के प्रावधानों के खिलाफ है, जिसमें अंतरराज्यीय नदी जल विवाद के निपटारे के लिए राज्य सरकारों की संलिप्तता अनिवार्य होती है। सरकार ने इस संशोधन विधेयक के जरिये केंद्र और राज्यों के बीच सहकारी संघवाद को धता बताने की कोशिश की है।
कांग्रेस के मनीष तिवारी ने चर्चा की शुरुआत करते हुए कहा कि सरकार ने इस विधेयक को पेश करने से पहले संबंधित राज्य सरकारों से सम्पर्क करना चाहिए था, लेकिन ऐसा न करके केंद्र ने सहकारी संघवाद की अवधारणा को ध्वस्त किया है। उन्होंने न्यायाधिकरण के सदस्यों के चयन में राज्यसभा में विपक्ष के नेता या लोकसभा में विपक्ष के नेता अथवा सबसे बड़े दल के नेता को शामिल नहीं किये जाने को लेकर सरकार की आलोचना की है। उन्होंने न्यायाधिकरण के अधीन विवाद निपटारा समिति और छोटे न्यायाधिकरण के दो स्तर और बढ़ाये जाने के प्रावधान को भी अनुचित कदम बताया। उन्होंने कहा कि जल विवाद के निपटारे में होने वाली देरी के लिए केवल न्यायाधिकरण के सदस्य जिम्मेदार नहीं है।
भारतीय जनता पार्टी के सतपाल सिंह ने विधेयक का समर्थन करते हुए कहा कि केंद्र सरकार को न्यायाधिकरण बनाने का अधिकार है और ऐसा करने से सहकारी संघवाद की अवधारणा को कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा। उन्होंने कहा कि ऐसे न्यायाधिकरण भी हैं जिसे 33 साल लग गये, लेकिन अभी तक विवाद निपट नहीं सका है।
द्रविड़ मुनेत्र कषगम के दयानिधि मारन ने ‘जलशक्ति’ मंत्रालय को शक्तिविहीन मंत्रालय करार देते हुए तमिलनाडु के साथ नदी जल बंटवारे को लेकर होने वाले भेदभाव का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि कर्नाटक ने कावेरी नदी जल बंटवारे के मामले में उच्चतम न्यायालय के आदेश की अवहेलना की है। तृणमूल कांग्रेस के कल्याण बनर्जी ने विधेयक के कुछ प्रावधानों को समय की मांग तो बताया, लेकिन उन्होंने सरकार से मांग की कि न्यायाधिकरण के क्षेत्रीय कार्यालय संबंधित राज्यों में खोले जायें।